गाँधी जी ने सालों पहले एक बढ़िया मंत्र दे दिया था - बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो; मगर जब बुरे का पता ही नहीं चले तो करें क्या?
इन दिनों ऐसा माहौल हो चूका है कि एक सनसनीखेज़ खबर के प्रति लोगों की दिलचस्पी ख़तम होती नहीं कि अगली सनसनीखेज़ खबर बिलकुल तैयार रहती है हमारी दिमाग को घेरने के लिए। जैसे कि नोटबंदी या विमुद्रीकरण, पुलवामा हमला, सर्जिकल स्ट्राइक, CAA NRC बिल, JNU फीस, 2019 चुनाव, कोरोना, फार्म बिल, सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या, हाथरस की दर्दनाक घटना और ऐसे कई मुद्दे हैं जिन्होंने हमारे अख़बारों और टीवी के चैनलों को घेरे रखा। अब यहां बात ये नहीं कि देश में कुछ हो नहीं रहा। देश में बहुत कुछ हो रहा है। इनमें से कई घटनाएं इतनी दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण है कि उसे शब्दों में बयान करना मुश्किल है। बात ये है कि जो हो रहा है उसे कैसे, क्यों, कब और कितना दिखाया जा रहा है।
अगर आप कोई एक ही अख़बार पढ़ते हैं या कोई एक ही न्यूज़ चैनल देखते हैं तो आप यहां कही जाने वाली बात शायद आपको ज़रूरी नहीं लगे शुरुआत में, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि आप इस मुद्दे का शिकार नहीं, बल्कि आप ही इस मुद्दे के बड़े शिकार हैं। यूँ समझिये कि ये सभी न्यूज़ चैनल और अख़बार बस आप ही के लिए लिखते हैं और उन्हें ये बात अच्छे से पता है कि आप कोई दूसरा अख़बार या न्यूज़ चैनल नहीं देखते।
किसी छुट्टी वाले दिन आप एक काम करिये। एक "सनसनीखेज़" खबर को लीजिये और उस खबर को हर न्यूज़ चैनल(टीवी और डिजिटल) पर सुनिए और हर जगह पढ़िए (डिजिटल और प्रिंट)। एक ही खबर के बारे में सबकी अलग राय है और उन सभी रायों को दो भागों में बांटा जा सकता है - एक सरकार के पक्ष में जिसके हिसाब से देश में इससे अच्छा समय पहले कभी नहीं आया और दूसरा सरकार के विपक्ष में जिसके हिसाब से इससे बुरा समय देश में कभी नहीं आया। क्या आपको लगता है इन दोनों में से कोई भी 100 प्रतिशत सच हो सकती है? तब आपको ये एहसास होगा आपने अपनी विचारधारा को मीडिया को गिरवी दे रखा है, जहां आपको बस लगता है कि आपकी विचारधारा आपकी ही है मगर असलियत में वो काम में किसी और के आ रही है।
आप क्रोनोलॉजी समझिये। पहले हमें सबसे तेज़ सनसनीखेज़ खबर दी जाती है जिसे हम जमकर फैलाते हैं, फिर हम में से कुछ लोगों को पता चलता है कि उस खबर का पूरा सच कुछ और है, फिर वही कुछ लोग झूठी खबर की शायद थोड़ी निंदा करते हैं और घर जाकर सो जाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में गाड़ियां जल चुकी होती है; लोग मारे जा चुके होते हैं और ज्यादातर लोगों के बीच सांप्रदायिक फुट और राजनैतिक ध्रुवीकरण पैदा हो चूका होता है वो भी हमेशा के लिए। और मुझे ये बताने की ज़रूरत नहीं कि जिन लोगो को इससे फायदा मिलना होता है उन्हें फायदा भी मिल चूका होता है।
अब मुझे ये तो नहीं पता कि व्यवस्था में क्रन्तिकारी बदलाव कैसे लाया जाए। लेकिन हम अनेकांतवाद की मदद से व्यक्तिगत तौर पर कुछ ऐसे बदलाव ला सकते हैं जिससे हम किसी मुद्दे के बारे में अपनी जानकारी को बेहतर बनाकर सही निर्णय के करीब पहुंच पाएं।
अनेकांतवाद कहता है कि 1) हर वस्तु के अनेक पहलु होते हैं। 2) एक वस्तु में दो विरोधी गुण रह सकते हैं। 3) हम पूरा सच नहीं जान सकते मगर हम पहली और दूसरी बात को ध्यान में रखते हैं तो उसके करीब पहुँचते हैं।
आइये इस हमारे समाचारों पर लागू करते हैं :-
1 ) इंतज़ार करें - अगर कोई खबर आज और अभी आयी है तो उस खबर को तुरंत मान लेने की, एका-एक खुश होने की, एका-एक गुस्सा होने की और उसे व्हाट्सअप पर भेजकर ज़िम्मेदार नागरिक बनने की जल्दी बिलकुल न करें। इसमें ढेरो अनजान व्हाट्सअप वीडियो भी शामिल है। अगर कोई ऐसा मुद्दा है जो आपको कुछ ज़्यादा ही चिंतिन कर रहा है तो उसके बारे में अलग-अलग मीडिया को पढ़ें और उस मुद्दे के ज़्यादा से ज़्यादा पहलुओं को अलग-अलग दृष्टिकोण से जानने की कोशिश करें। अब आप को लगेगा कि ये तो बड़ी मेहनत है लेकिन ऐसा बिलकुल भी नहीं है। खबरें तो वैसे भी रोज़ पढ़ते हैं तो पढ़ते रहिये, बस उसे तुरंत माने नहीं, अपनी राय न बनाये और कहीं भेजे नहीं। थोड़ा इंतज़ार कर लें। सच बाहर आने लगेगा। और अगर सच बाहर नहीं भी आया तो कम से कम आप एक गलत खबर किसी को बताने से और उससे हुई हानी में योगदान से तो बचे।
याद रखिये मीडिया में होड़ सबसे तेज़ खबर लाने की है। अब सबसे तेज़ "सनसनीखेज़" खबर देने वाले जांच-पड़ताल नहीं कर रहे हैं खबर देने से पहले तो हमें ही इंतज़ार कर लेना चाहिए उसको सही मानने से पहले। हमारा ही फायदा है।
2 ) निष्पक्ष खबर और खबर देने वाला ढूंढे - ये बात तो तय है कि कोई भी कानून, कोई भी बिल, कोई भी नियम पूरी तरह से बेकार नहीं हो सकता, कम से कम उस समय में तो नहीं जिस समय में वो लागू हो रहा है। बाद में चाहे बहुत बेकार लगे। अगर कोई रिपोर्टर या मीडिया किसी बात को बस अच्छा ही कह रहा है तब भी परेशानी है और अगर किसी बात में बस खामियां ही निकाल रहा है तब भी परेशानी है। हमें कुछ भी सुनते या देखते वक़्त ये गौर करते रहना चाहिए कि उस खबर में अच्छे - बुरे सारे पहलुओं की बात हो रही हैं या नहीं।
आप इस तरीके से सोचिये। अगर आप को सिर्फ अच्छा बताया जा रहा हैं तो इसका मतलब बुरा छुपाया जा रहा हैं और सिर्फ बुरा बताया जा रहा हैं तो इसका मतलब अच्छा छुपाया जा रहा हैं। दोनों ही स्थिति में वो झूठ ही हुआ क्योंकि दोनों ही स्थिति में आप सही राय नहीं बना सकते।
तो हमेशा ऐसा चैनल या अख़बार या खबर देने वाला ढूंढिए जो कि हर पहलुओं पर बात करे और निष्पक्ष खबर देने की कोशिश करे। यकीन मानिये ऐसा मीडिया आपको कम ही मिलेगा और अगर नहीं मिलता तो टीवी और अख़बार बंद करने में ही फायदा है।
3 ) सच एक धोख़ा है - हम पूरा सच जानने के काबिल नहीं। इसके कई कारण हैं। एक तो ये कि जब हमें पूरा सच बताया ही नहीं जायेगा तो जानेंगे कैसे। दूसरा ये कि सच बताने का दवा करने वाले ने अपनी जांच-पड़ताल और शोध ठीक से की है या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं है। तीसरा ये कि हम हर खबर पर हमारा उतना समय नहीं दे सकते जितना सच के करीब पहुँचने के लिए देने की ज़रूरत है क्योंंकि हमारे पास दूसरे काम भी हैं। लेकिन फिर भी हम खबर देखते ज़रूर हैं और बस चटखारे लेकर निकल जाते हैं। हमें लगता है हमने बस खबर देखी और सो गए, हम पर उसका कोई असर नहीं हो रहा लेकिन असलियत में हम कब कुछ देखकर हमें पता ही नहीं चलता। तो क्या करें ?
हमें ये करना चाहिए कि हमे चटखारे लेने कि आदत और पूरी दुनिया का सच जानने के लालच को कम कर देना चाहिए, क्योंकि जो हमें मिल रहा हैं वो सच है ही नहीं तो उस लालच और आदत का फायदा क्या है? 99 प्रतिशत खबरें जो हम देख रहे हैं वो सारी खबरें हमारे करीबी क्षेत्र से बहुत दूर की होती है जिनके बारे में में हम 100 प्रतिशत कुछ नहीं करते। अब चूँकि खबर हमारे देश की है तो जानकारी रखने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन हम अगर अपनी आधी ऊर्जा को अपने क्षेत्र की, अपने जिले की, अपने शहर की, अपनी कॉलोनी की, अपनी गलियों की खबरों में डालें तो हम सच का ज़्यादा अच्छे से पता कर सकते हैं और उसके लिए कुछ कर भी सकते हैं। याद रखिये कोई भी बदलाव घर से ही शुरू होता है।
इंसान सबसे सच्चा तब होता है जब वो मुँह नहीं खोलता, मुँह खोलने के बात कोई भरोसा नहीं।